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आचार्य श्रीराम शर्मा >> ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

ब्रह्मवर्चस् साधना की ध्यान-धारणा

श्रीराम शर्मा आचार्य

प्रकाशक : युग निर्माण योजना गायत्री तपोभूमि प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :144
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 4270
आईएसबीएन :0000

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ब्रह्मवर्चस् की ध्यान धारणा....

२. (ङ) आनन्दमय कोश

आनंदमय कोश चेतना का वह स्तर है जिसमें उसे अपने वास्तविक स्वरूप की अनुभूति होती रहती है। अपने लोक का, अपने आधार का, अपने वैभव का, अपने अधिष्ठाता का भाव रहने से उसे प्रतीत होता है कि मैं पूर्ण में से उत्पन्न हुआ पूर्ण ही हूँ। इस वस्तुस्थिति की चर्चा तो कथा, प्रवचनों में प्रायः सुनने को मिलती रहती है। लोग परस्पर इस ब्रह्मज्ञान की चर्चा भी करते हैं, पर यह मस्तिष्कीय जानकारी जिह्वा और कान का विषय बनकर रह जाती है। अंत:करण में कभी वैसी गहन अनुभूति उठती नहीं। यदि कभी वैसा अनुभव करने की स्थिति बन पड़े तो समझना चाहिए कि आत्मबोध का परम सौभाग्य उपलब्ध हो गया। इस सुयोग को आत्मज्ञान, आत्मानुभूति, आत्मदर्शन, आत्मसाक्षात्कार, आत्मनिर्वाण आदि गौरवास्पद नामों से पुकारा जाता है।

आत्मबोध के दो पक्ष हैं-एक के अनुसार अपनी ब्राह्मी-चेतना, ब्रह्मसत्ता का भान होने से अयमात्मा ब्रह्म, चिदानंदोऽहम, शिवोऽहम्, सच्चिदानंदोऽहम् का अनुभव करते हुए आत्मसत्ता में संव्याप्त परमात्मसत्ता का दर्शन होता है, वहाँ दूसरी ओर संसार के प्राणियों और पदार्थों के साथ अपने वास्तविक संबंधों का तत्त्व ज्ञान भी प्रकट हो जाता है। इस संसार का हर पदार्थ परिवर्तनशील, नाशवान एवं निर्जीव है। उसमें जो सुखद अनुभूतियाँ होती हैं वे मात्र अपनी ही आस्था एवं आत्मीयता के आरोपण की प्रतिक्रिया मात्र होती हैं। इसी प्रकार प्रत्येक प्राणी अपना स्वंतंत्र अस्तित्त्व लेकर जन्मा है। परस्पर तो मात्र सामयिक कर्तव्यों एवं उत्तरदायित्त्वों से ही बँधे हैं। न कोई अपना है और न पराया। सभी ईश्वर के खिलौने और परस्पर साथी-सहचर की तरह निर्वाह कर रहे हैं। इस तत्त्व ज्ञान के अंतरात्मा में प्रकट होते ही वस्तुओं का लोभ और प्राणियों का मोह तिरोहित हो जाता है। समस्त अटपटे, असंगत, अवांछनीय क्रियाकलाप इसी मोहग्रस्तता के उन्माद में बन पड़ते हैं। दुर्भावनाएँ, दुश्चितन, दुष्कमों की काली घटाएँ इसी बौद्धिक नशे की स्थिति में उठती हैं। उन्हीं की प्रतिक्रियाएँ चित्र-विचित्र रोग-संतापों के रूप में प्रकट होती है और सुरदुर्लभ मानव जीवन को नारकीय निकृष्टता से भर देती है। खीझ, असंतोष, पतन इसी आंतरिक पतन का दुर्भाग्यपूर्ण प्रतिफल हैं। जो इन तथ्यों को समझ लेता है, उसके लिए ईश्वर के इस सुरम्य उद्यान में शोक-संताप का कोई कारण शेष नहीं रह जाता। अज्ञान का अंधकार मिट जाने से सर्वत्र ब्रह्म का दिव्य प्रकाश ही छाया दीखता है। उसमें आनंद के अतिरिक्त और कहीं कुछ भी ऐसा शेष नहीं रह जाता, जो अंत:करण को प्रभावित कर सके।

यह आत्मानुभूति ही आनंदमय कोश की परिष्कृत स्थिति है। इसमें सदा एक आनंद भरी मस्ती छाई रहती है। अपने भीतर ब्रह्म और ब्रह्म के गर्भ में अपना अस्तित्व अनुभव होता रहता है। ऐसी स्थिति में अंतरात्मा को निरंतर तृप्ति-तुष्टि-शांति की स्वर्गीय अनुभूतियों का रसास्वादन करते रहने का अनवरत अवसर मिलता रहता है। मनुष्य जीवन जैसा अनुपम उपहार और आत्मज्ञान जैसा दिव्य वरदान पाकर और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता, उस स्थिति में संतोष की शांति छाई रहती है। इसी को तृप्ति-तुष्टि कहते हैं। अंधकार चले जाने पर प्रकाश ही प्रकाश शेष रह जाता है। अज्ञान के साथ ही समस्त शोक-संताप, भय एवं संकट जुड़े रहते हैं। उसके समाप्त हो जाने पर उल्लास की वह मस्ती छाई रहती है, जिसे देवलोक का अमृत एवं सोमरस कहते हैं। इस स्थिति में रहने वाले परमहंस, स्थिति-प्रज्ञ, अवधूत, ब्रह्मज्ञानी आदि नामों से पुकारे जाते हैं। उन्हें जीवन-मुक्त भी कहते हैं। अवतार, देवदूत, युग पुरुष, तत्त्वदर्शी भी इसी स्तर के लोगों को कहा जाता है। उनके सामने न कोई व्यक्तिगत समस्या होती है और न आकांक्षा। ईश्वरीय इच्छाओं को ही अपनी इच्छा मानते हैं और समय की आवश्यकताओं को ही अपनी आवश्यकता समझ कर उसकी पूर्ति में प्रखर कर्तव्य-परायण किंतु नितांत वैरागी की तरह काम करते हैं। सफलता-असफलता उन्हें प्रभावित नहीं करती, वे मात्र इतना ही सोचते हैं कि अपनी भावना एवं क्रिया का स्तर उच्चकोटि का रहा या नहीं। यही आनंदमय कोश के परिष्कृत होने का चिह्न हैं। वे आनंद के अमृत से भरे रहते हैं और जो भी संपर्क में आता है, उसी पर यह अमृत छिड़कते रहते हैं। स्वयं हँसते और दूसरों को हँसाते हैं। स्वयं खिलते और दूसरों को खिलाते हैं। स्वयं तरते और दूसरों को तारते हैं। चंदन वृक्ष की तुलना ऐसे ही महामानवों से की जाती है। उनके निकट उगने वाले झाड़झंखाड़ भी सुगंधित होते हैं। पारस इसी प्रकार के व्यक्तित्वों का नाम है, उन्हें छूने वाले लौह खंड भी स्वर्ण संपदा बनते हैं और सम्मानित होते हैं। कल्पवृक्ष यही है जिनकी छाया में बैठकर मनोविकारों की आग में जलने वाले लोग कामनाओं की पूर्ति से भी बड़ा संतोष कामना परिष्कार के रूप में पाते हैं। अमृत का जो भी रसास्वादन करता है, अमर बनता है। आनंदमय कोश में जागृत चेतना भी अमृत है, उसका थोड़ा-सा अनुग्रह पाकर भी कितनों को ही उत्कृष्टता की गरिमा प्राप्त करने का अवसर मिलता है। सूर्य के प्रकाश से रात्रि के अंधकार को दिन में परिवर्तित होते देखा जाता है। आत्मानंद के प्रकाश से प्रकाशवान व्यक्तित्व अपने युग का अंधकार निगलते हैं

और प्रभातकालीन सूर्य की तरह सर्वत्र आशा और उमंग भरा उत्साह बिखेरते हैं। वे स्वयं धन्य बनते हैं और अपने पीछे अनुकरणीय परंपरा छोड़कर युग को, क्षेत्र को, कुल को, इतिहास को धन्य बनाते हैं।

शरीर और आत्मा की भिन्नता का तत्त्वबोध होने पर वह शरीराभ्यास घट जाता है, जिसके भव-बंधन प्राणी को दुसह दुःख पहुँचाते हैं। वासना, तृष्णा और अहंता उन्हें ही सताती हैं जो अपने को शरीर मानते और उसकी सुविधाओं को ही सर्वोपरि महत्त्व देते हैं। ऐसे ही लोग उद्विग्न, खिन्न, अशांत, ऋद्ध, रुष्ट, चिंतित, आतंकित पाए जाते हैं। असंख्य कामनाएँ उन्हें ही सताती हैं और अभावों, असफलताओं के नाम पर सिर धुनते ऐसे ही लोगों को देखा जाता है। जब अंत:करण यह तथ्यतः स्वीकार कर लेता है कि हम आत्मसत्ता हैं। शरीर तो एक निर्जीव वाहन, उपकरण मात्र है तो उसकी ललक, लिप्साएँ भी बाल-क्रीड़ा जैसी महत्त्वहीन लगने लगती है। इस स्थिति में सारा ध्यान आत्मकल्याण के लिए महान कार्य करने पर केंद्रित रहता है। शरीर के लिए तो निर्वाह, व्यवस्था का प्रबंध करते रहना भर पर्याप्त लगता है। इस बदली हुई मनःस्थिति में जीवन का स्वरूप ही बदल जाता है। मोहग्रस्त, माया बंधनों में बँधे हुए नरपशु जिस प्रकार सोचते हैं, उसकी तुलना में इन आत्मवेत्ताओं का दृष्टिकोण सर्वथा भिन्न होता है। वे जो सोचते हैं, जो करते हैं, वह ऐसा होता है जिसके लिए अंत:क्षेत्र में आत्मसंतोष की और बाह्य क्षेत्र में श्रद्धा, सहयोग की अजस्त्र वर्षा होती रहे। आनंदमय कोश का जागरण ऐसी ही देवोपम मनःस्थिति और स्वर्गीय परिस्थिति को इसी जीवन में प्राप्त करने के लिए किया जाता है।

आनंदमय कोश चेतना की वह उत्कृष्टतम स्थिति है जिसमें पहुँचा हुआ मनुष्य सामान्य स्थिति में निर्वाह करता हुआ भी ब्रह्मवेत्ता कहलाता है और अपने अनुदानों की समस्त मानव जाति पर सुधा वर्षा करता है। पंचकोशों केजागरण में आनंदमय कोश की ध्यान-धारणासे व्यक्तित्व में ऐसे परिवर्तन आरंभ होते हैं, जिनके सहारे क्रमिक गति से बढ़ते हुए धरती पर रहने वाले देवता के रूप में आदर्श जीवनयापन कर सकने का सौभाग्य मिलता है।

ध्यान करें-शरीर स्थूल पदार्थ नहीं, तेज रूप है। मस्तिष्क मध्य में, सहस्त्रार चक्र में, विद्युत का एक फौआरा जैसा चल रहा है। उसके स्फुर्लिंग, दिव्य उल्लास युक्त, दिव्य शक्ति युक्त तथा प्रेरणा युक्त हैं।

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    अनुक्रम

  1. ब्रह्मवर्चस् साधना का उपक्रम
  2. पंचमुखी गायत्री की उच्चस्तरीय साधना का स्वरूप
  3. गायत्री और सावित्री की समन्वित साधना
  4. साधना की क्रम व्यवस्था
  5. पंचकोश जागरण की ध्यान धारणा
  6. कुंडलिनी जागरण की ध्यान धारणा
  7. ध्यान-धारणा का आधार और प्रतिफल
  8. दिव्य-दर्शन का उपाय-अभ्यास
  9. ध्यान भूमिका में प्रवेश
  10. पंचकोशों का स्वरूप
  11. (क) अन्नमय कोश
  12. सविता अवतरण का ध्यान
  13. (ख) प्राणमय कोश
  14. सविता अवतरण का ध्यान
  15. (ग) मनोमय कोश
  16. सविता अवतरण का ध्यान
  17. (घ) विज्ञानमय कोश
  18. सविता अवतरण का ध्यान
  19. (ङ) आनन्दमय कोश
  20. सविता अवतरण का ध्यान
  21. कुंडलिनी के पाँच नाम पाँच स्तर
  22. कुंडलिनी ध्यान-धारणा के पाँच चरण
  23. जागृत जीवन-ज्योति का ऊर्ध्वगमन
  24. चक्र श्रृंखला का वेधन जागरण
  25. आत्मीयता का विस्तार आत्मिक प्रगति का आधार
  26. अंतिम चरण-परिवर्तन
  27. समापन शांति पाठ

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